Tuesday 27 December 2016

चचा ग़ालिब की जयंती पर

वो आगरा में पैदा हुए..दिल्ली में आकर बसे..यहीं के होकर रह गए..दिल्ली में मुगल काल के आख़िरी बादशाह बहादुर शाह ज़फर उनके ख़ूब मुरीद हुए..सिर्फ़ दिल्ली, आगरा और कलकत्ता में ही नहीं, जहां भी गए उर्दू और फ़ारसी को पहचान दिलाई..उनके लिखे शेर बहुत कुछ कहते हैं..उन्होंने जैसा लिखा वैसा कोई ना लिख पाया..'वो हर एक बात पे कहना कि यूं होता तो क्या होता'..वो सही कहते थे 'ना था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ ना होता तो ख़ुदा होता'..'हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है'..ऐसे ही ना जाने कितने शानदार शेर कहने वाले असद को नमन..
वाकई 'हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे, कहते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयां और'

मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खां 'ग़ालिब' की जयंती पर उन्हें याद कर आंखें भर आई है

Tuesday 14 January 2014

कविता- नौकरी की तलाश में जाता हूं जब शहर....

नौकरी की तलाश में जाता हूं जब शहर, मैं कभी-कभार...
कुछ रोटियां और प्याज की गांठ साथ ले जाता हूं,
उस वक्त पुराना झोला(जो पिताजी का था), मेरे कंधे पर होता है,
कुछ काग़ज, कलम और दस्तावेज़ साथ लिए जाता हूं....
अम्मा ने पॉलिश किए थे जो जूते, उन्हें पहन घर से निकल लेता हूं,
ताकते हैं आस-पड़ोस वाले, बगले झांकते हैं...
ये खुशी है, ईर्ष्या या कुछ और, ये मैं आज तक नहीं समझ पाया...

घर से निकलने से पहले...अम्मा छोटी सी प्याली में दही-बूरा ले आती है....
एक चम्मच चखने के बाद मैं पूरी प्याली चट कर जाता हूं,
माथे पर तिलक लगाना उचित नहीं समझता, पर...
गुजरता हूं जब चौक से तो कुएं वाले मंदिर पर दूर से ही सिर झुका लेता हूं.
ये सिलसिला हर बार यूंही चलता रहता है, और हर शाम को जब घर लौटता हूं,
तो मेरे घर में ही कुछ निगाहें मेरी ओर ताकती रहती हैं...दरअसल वो टकटकी लगाए रखती हैं...
कि कब मैं आऊं और उन्हें रोजगार मिलने की ख़बर सुनाऊं,पर ऐसा कभी नहीं होता...
पर, पहुंचता हूं घर तो उन्हें ढांढस बंधा देता हूं....
अगली बार किसी दूसरे शहर को मैं फिर नौकरी की तलाश में चल देता हूं....


प्रदीप राघव...

Tuesday 31 December 2013

बीते साल बहुत से बदलाव हुए..समाज में, राजनीति में, हर जगह..जिनमें से कुछ बहुत अच्छे थे, तो कुछेक बुरे...लेकिन हर अच्छाई की जंग बुराई को खत्म करके ही जीती जाती है...कुछ इसी तरह हम भी चल रहे हैं...समाज भी चल रहा है...एक गतिमान नदी की तरह...नदी के बहाव की तरह आगे बढ़िए, मंजिल कठिनाईयों को पार करने के बाद ही मिलती है...दृढ इच्छाशक्ति रखिए...विश्वास रखिए...धैर्य के साथ काम लीजिए...तम्मनाएं तो रोजाना पैदा होती हैं...और आप उनको पाने के लिए मेहनत भी करते हैं...लेकिन इस साल औरों के लिए भी कुछ करिए...आज की रात के बाद 2013 नहीं आने वाला...लेकिन उम्मीदें कायम रखिए...हौसला रखिए...धैर्य रखिए जीत आपकी ही होगी...इन्ही शब्दों के साथ आप सभी को नव वर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएं...ये साल आपके जीवन में नई खुशियां लेकर आए...ईश्वर से यही मनोकामना करता हूं...HAPPY NEW YEAR 2014





प्रदीप राघव

Friday 1 November 2013

अलविदा बीबी नातियों वाली,अलविदा मियां,मौलाना लादेन,अलविदा केपी सक्सेना...आपको श्रद्धांजलि...

अपनी लेखनी में मियां और मौलाना लादेन का ज़िक्र करने वाले व्यंग्यकार केपी सक्सेना आज भले ही इस दुनिया को अलविदा कह गए...लेकिन वो हमेशा हमारे दिलों में एक ज़िंदादिल शख़्स की तरह ज़िदा रहेंगे...बहुत से लोगों की केपी से बहुत सी यादें जुड़ी हैं...ऐसी ही एक याद का ज़िक्र एस लेख में करूंगा...उर्मिल कुमार थपलियाल के द्वारा....

उर्मिल कुमार थपलियाल कहते हैं...ये उन दिनों की बात है जब केपी सक्सेना रेलवे में स्टेशन मास्टर हुआ करते थे...एक दिन केपी,उर्मिल बाबू और कुमुद नागर चारबार स्टेशन से बाहर पान की दुकान पर पहुंचे(केपी पान के ख़ूब शौकीन थे)...तीनों ने पान खाया...उर्मिल बाबू ने तफ़रीह लेने के लिए अपनी जेब में हाथ डाला और कहने लगे''अरे यार आज तो जेब में पैसे नहीं हैं'' केपी ने उन्हें घूरकर देखा और बड़ी मुश्किल से 5 रुपए निकाले...उसके बाद केपी इस क़िस्से को बार-बार दोहराया करते कि उर्मिल ने उन्हें बेवकूफ बना दिया...उर्मिल कहते हैं केपी थे बहुत दिलदार...जो भी उनके पास जाता बिना मुस्कुराए वापस नहीं आता...केपी की लिखावट बिल्कुल जुदा थी...वे बड़ी ख़ूबसूरती से चीज़ों को पेश करते थे...उनके जाने के बाद कौन अब उनकी तरह लिख पाएगा...


प्रदीप राघव

Wednesday 23 October 2013

खज़ाना या अंधविश्वास...

खज़ाना या अंधविश्वास...

इधर यूपी के उन्नाव में खुदाई चल रही है उधर पिताजी की एक बात याद आ रही है, पिताजी अक्सर कहा करते थे ज़मीन के नीचे खज़ाना होता है,उनका कहना था जब वो छोटे थे,लगभग हमारी उम्र के..उस ज़माने में ज़मीन से पुराने सिक्के निकल आया करते थे,पुराने बर्तन,खज़ाना या कोई धातु। पिताजी की बातें काफी रोचक हुआ करती थीं,हमें सुनने में मज़ा आता था,पड़ोस के बच्चे भी उनके क़िस्से सुनने को जमा हो जाया करते थे।लेकिन ये अरसे पहले की बात थी,आज हालात बदल गए हैं। अब तक़रीबन 80 बरस बाद,पिताजी की उम्र के मुताबिक,ज़मीन से कुछ निकलता नहीं बल्कि निकलवाने की कोशिश ज़रूर की जाती है।जैसा कि उन्नाव के डौंडियाखेड़ा में हो रहा है।संत शोभन सरकार का सपना लोगों की उम्मीद बन गया है।गांव में क़िले के आसपास इन दिनों मेला जुटा है।जलेबी,समोसे,ब्रेड पकोड़ा इत्यादि-इत्यादि।अखिलेश के प्रदेश में खजाने की खुदाई चल रही है,अखिलेश सरकार खजाना निकलने से पहले ही उस पर अपना दावा ठोंक चुकी है।भले ही वहां फूटी कौड़ी ही ना निकले। डौंडियाखेड़ा गांव शायद उस दौरान भी इतना चर्चित ना हुआ होगा जब यहां राजा राव रामबख्श सिंह की सल्तनत थी।लेकिन आज डौंडियाखेड़ा गूगल पर जगह बना चुका है।ठीक अक्षय कुमार की फिल्म जोकर के गांव पगलापुर की तरह।लोग डौंडियाखेड़ा की तुलना पीपली लाइव से भी कर रहे हैं लेकिन जोकर फिल्म से भी इसकी तुलना की जाए तो बुरी बात नहीं,क्योंकि अगर खज़ाना मिला तो ये गांव भी नक्शे में अपनी अलग पहचान बना ही लेगा।लेकिन ये हकीक़त हो ये कोई जरूरी नहीं और ना ग़लत नहीं होगा। गांव में खज़ाने की ख़बर जंगल की आग की तरह फैली है,आसपास के गांवों के लोग भी डौंडियाखेड़ा में बसेरा डाले बैठे हैं।खज़ाने पर अपना दावा करने वालों की भी कोई कमी नहीं।लेकिन खुदाई में अभी तक कुछ मिला ही नहीं,हां कुछ 1500 साल पुरानी ईंटें ज़रूर मिली हैं।पिताजी की कुछ और बातें ज़ेहन में आ रही हैं,वो कहते थे कि अमीरी बढ़ने से ग़रीबी बढ़ी है,उन दिनों ये बात समझ से परे थी पर आज समझ आती है।उनका कहना था कि उस ज़माने में लोगों के पास पैसा ना था पर दो ज़ून की रोटी चैन से मिल जाती थी,लोगों के पास सोना ना था,लोग चैन से सोते थे,और आज हालात इसके उलट हैं,लोगों के पास पैसा है पर चैन नहीं सोना है पर नींद नहीं।आजकल पैसे और खजाने ने लोगों की नींद उड़ा दी है,डौंडियाखेड़ा की तरह।पिताजी कहते थे बरसात ज्यादा होने पर मिट्टी के भीतर से सिक्के बाहर आ जाया करते थे,खेतों में गड़े हुए घड़े मिल जाते थे,खज़ानों से भरे। लेकिन आज इसकी कल्पना करना बेमानी है। किसी बेवकूफी से कम नहीं,इसे अंधविश्वास ना कहें तो और क्या कहें।क्या हम सपनों पर जीते हैं।क्या कल्पनाओं को हकीक़त में गढ़ा जा सकता है।मेरे ख्याल से नहीं। लेकिन 21वीं सदी में हम यूएन में बैठने वाले देश के लोग ऐसी कल्पनाओं के पीछे कैसे भाग सकते हैं।क्या आसाराम जैसे ठगियाओं से अंधविश्वास का सबक हमें नहीं मिल पाया है जो देश को अंधेरे में रखकर पाखंड और झूठ के सहारे लोगों के भगवान बन बैठते हैं।अब ऐसे संत शोभन से इस समाज को सबक ले लेना चाहिए।कि वो ऐसे सपने देश को ना दिखाए जो कभी पूरे ही ना हों बल्कि खुद सपनों को साकार करके देश को बेहतर बनाएं,इसी में सबकी भलाई है।


प्रदीप राघव

Tuesday 3 September 2013

कविता- मेरे मकां में अब...


मेरे मकां में अब कोई नहीं रहता,
सिवाय वीरानी के...
हैं चंद जाले और खिड़कियां भी हैं,
पर झांकने वाला कोई नहीं..
गूंजती थीं जो आवाज़ें कल तक वहां,
हां, वो अभी भी कानों में सुनाई पड़ती हैं...
धूल से सनी हुई तस्वीरें अब भी ज़मीं पर पड़ी हैं,
और कुछ दीवारों पर टंगी हैं...
टिक-टिक करने वाली घड़ी आज़ थम सी गई है,
मेरे बाद...मेरे परिवार के बाद...
कई दफ़ा दिल को समझाया मैंने,
पर ना ख़ुद रुक पाया ना मेरे आंसू...
अब मेरा मकां मुझे कहानी लगता है,
मेरे बाद...मेरे परिवार के बाद,
मेरे मकां में अब कोई नहीं रहता,
जब मुझे मकां की याद आई...
ख़ूब आंसू बहे और मैं वापस मकां को लौटा,
जालों के बीच से मैंने झांका,
खिड़कियों से आती बूंदों को मैंने ताका...
फिर मैंने उन तस्वीरों की आवाज़ सुनी,
जिनमें से कुछ टूट गई थीं...
और तब मेरी समझ में आया जिससे मैं अभी तक बेख़बर था,
ख़ूब रोया...आंखें सुजाई मैंने...
बाद उसके जब मैं नए घर लौटा,
तो पुरानी यादें थीं मेरे साथ...
और लबों पे यही कविता थी...
मेरे मकां में अब यादें रहा करती हैं
मेरे बाद,मेरे परिवार के बाद...


प्रदीप राघव...

Tuesday 16 July 2013

जब मेट्रो गाड़ी आती है-कविता

जब मेट्रो गाड़ी आती है,
धड़कन दिल की बढ़ जाती है,
सफ़र हमारा रोज़ाना का मेट्रो गाड़ी से होता है,
पर एक बरस है हो चला ना कोई हमसे मिलता है...
ना कोई हमसे मिलता है ना कोई हमसे बतियाता,
मेट्रो की तन्हाई में हम खुद से अब बातें किया करते हैं,
चारों तरफ ख़ामोशी,पर कुछ लोग रेडियो सुना करते हैं,
एक सन्नाटा सा कौंध जाता है...
पर हमारे दिल को सुकून आ जाता है,
जब छात्रों का झुंड सवार हो जाता है,
छात्र आपस में बतियाते हैं,
सब उनके मुंह को ताक-ताक,अपने-अपने स्टेशन उतर जाते हैं।